भक्ति और पवित्रता की अद्वितीय यात्रा - कांवड़ यात्रा

कांवड़ यात्रा की शुरुआत मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन से हुई, जहां भगवान शिव का कंठ नीला हुआ था क्योंकि उन्होंने विष पी लिया था।

रावण ने विष के प्रभाव को खत्म करने के लिए कांवड़ में जल भरकर शिव को जलाभिषेक किया था, जिससे कांवड़ यात्रा की परंपरा शुरू हुई। 

'कांवड़' का अर्थ है - जीव और विष्णु, जीव और सगुण परमात्मा का उत्तम धाम। जहा 'कां' का अर्थ है - जल और 'आवर' का अर्थ है - उसकी व्यवस्था। 

भगीरथ के तप के बाद भगवान विष्णु ने गंगा को पृथ्वी पर आने के लिए अपने इष्ट पैर छूने की कहा थी, जिससे गंगा पृथ्वी पर बहने लगी। कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़ यात्री शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। 

कांवड़ तैयार करने के लिए बांस, फेविकोल, कपड़े, डमरू, फूल-माला, घुंघरू, मंदिर, लोहे का बारीक तार और मजबूत धागे का प्रयोग होता है। 

हरिद्वार में कांवड़ तैयार किए जाते हैं। कांवड़ को फूल-माला, घंटी और घुंघरू से सजाया जाता है। 

यात्रियों के पास गंगाजल भरकर धूप-दीप जलाते हुए भगवान शिव के दर्शन करने आना चाहिए। 

कांवड़ यात्रियों के लिए कुछ नियम हैं, जैसे बिना नहाए कांवड़ को नहीं छूना, तेल, साबुन, कंघी का प्रयोग न करना, और अपने साथी को भोला, भोली कहना।

कांवड़ यात्रा चार प्रकार से होती है - सामान्य, डाक, खड़ी, और दांडी कांवड़ 

मान्यता है कि कांवड़ यात्रा के द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न करके भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

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